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Genre
Print Length
143 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2011
ISBN
8173151539
Weight
240 Gram
हमारे परिचितों में भाँति-भाँति के लोग हैं| पारिवारिक जीवन के बारे में इन सबके अनुभव भी अलग-अलग हैं| इन सबकी भीड़ में एक सज्जन हैं, वे प्राय: कहा करते हैं कि पारिवारिक जीवन तो बृज के लड्डुओं जैसा होता है, जो खाए वह भी पछताए और जो न खाए वह भी पछताए| हम यह बात पूरे विश्वास से तो नहीं कह सकते कि दोनों स्थितियों में पछतानेवाली बात क्यों है, फिर भी लगता है, हमारे मित्र की बात में कुछ-न-कुछ सच्चाई अवश्य है| क्योंकि बूर के लड्डुओं में लागत अधिक आती है, आनंद कम; बृज के लड्डुओं की एक विशेषता और भी है, वे जरा-सी ठेस लगते ही बिखर जाते हैं; जैसे परिवार को कोई हलका-भारी झटका तोड़ देता है या बिखेर देता है|
हमारे मित्र का एक विचार यह था कि जो परिवर्तनशील नहीं है, वह परिवार के योग्य नहीं है| परिवार के लिए आदमी का गतिशील अथवा प्रगतिशील होना इतना आवश्यक नहीं है, जितना परिवर्तनशील होना आवश्यक है|
जो भी हो, यह तो हमारे मित्र का विचार है| जरूरी नहीं कि सब आदमी इससे सहमत हों| पर जहाँ तक अपना सवाल है, परिवार के विषय में हमारा अनुभव कुछ ‘यों ही-सा’ है| इसमें दोष हमारा है या हमारे परिवार का, यह तो हम नहीं कह सकते, लेकिन अपने मित्र की इस बात पर कि ‘पारिवारिक जीवन तो बूर के लड्डुओं जैसा होता है, जो खाए वह भी पछताए और जो न खाए वह भी पछताए’, हम सोचते हैं कि क्यों न इसपर एक अदद रिसर्च कर डालें; ताकि आप जैसे बहुत-सों का भला हो|
परिवार में खटकते बरतनों और बजते रिश्तों पर खट्टी-मीठी चोट करते हुए ये व्यंग्य आपके लिए प्रस्तुत हैं|
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