$12.00
Print Length
256 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2011
ISBN
8173151903
Weight
370 Gram
एक दरबारी ने दर्प के साथ कहा ‘एक पत्र में लिखा आया है कि बहुत से राजपूत राजा दक्खिनियों के विरुद्ध हो गए हैं | हमारी निंदा करते हैं, लुटेरा कहते हैं! जिन मराठों ने हिंदुस्थान के चारों कोनों तक धर्म की ध्वजा फहराई; जिन मराठों की देवी ने उत्तर; में बदरीनाथ, केदारनाथ, कुरुक्षेत्र से लेकर मथुरा-वृंदावन, काशी, निजाम और टीपू राज्य रामेश्वर तक एवं द्वारिका और सोमनाथ मे लेकर जगन्नाथपुरी तक मंदिर, घाट, सड़कें और धर्मशाला बनवाईं और प्यासों के लिए प्याऊ रखवाईं जिन देवी ने तीर्थक्षेत्रों के मंदिरों में गंगाजल भिजवाने का प्रबंध किया, जिन देवी ने... '
अहिल्याबाई से न सहा गया | चेहरे पा रुद्रता फैल गई | ' बस, बस!' उन्होंने फटकारा ' मना कर दिया है कि मुझे देवी कभी मत कहो | मेरी चाटुकारी मत करो... ' फिर धीरे से बोलीं, ' सारे भारत की जनता एक है | द्वेष तो राजाओं और नवाबों में है | ये एक-दूसरे की निंदा की आड़ में एक-दूसरे के प्रदेश को बुरा बतलाते हैं | यह प्रदेश छोटा और बुरा है, हमारा प्रदेश बड़ा और अच्छा है; वे जंगली हैं, हम श्रेष्ठ हैं; इस भेदभाव का विष हम सबको किसी दिन नरक में धकेलेगा |'
- इसी उपन्यास से
चारों ओर घोर अराजकता; शासन- व्यवस्था के नाम पर घोर अत्याचार; प्रजाजन दीन-हीन अवस्था में; धर्म अंधविश्वासों, भय-त्रासों और रूढ़ियों की जकड़ में कसा हुआ; न्याय में न शक्ति रही थी, न विश्वास | ऐसे काल की उन विकट परिस्थितियों में अहिल्याबाई ने जो कुछ किया-और बहुत किया-वह चिरस्मरणीय है | महारानी अहिल्याबाई के जीवन पर आधारित यह ऐतिहासिक उपन्यास बाबू वृंदावनलाल वर्मा की श्रेष्ठ कृति है |
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