$11.37
Genre
Print Length
160 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2013
ISBN
9789380183244
Weight
310 Gram
मनीष माँ के सुझाव पर आश्चर्य प्रकट कर गया|
“हाँ, मैं ठीक कहती हूँ|”
“क्या?” वह अनमना-सा बोला|
“यही कि गाँव चलो| कम-से-कम तब तक जब तक मंदी रहे| देखना, फिर दिन बहुरेंगे तुम्हारे भी, पैकेज के भी| जिंदगी तो बितानी होती है, बेटा| पैकेज के सहारे या पुश्तैनी जमीन के सहारे, क्या फर्क पड़ता है|”
मनीष ने हामी तो नहीं भरी थी, पर रात को माँ-बेटे दोनों को अच्छी नींद आई थी| सुबह का अखबार हाथ में लेकर मनीष गाँव जाने की योजना बना रहा था|
उसके एक मित्र द्वारा आत्महत्या करने की खबर फोटो के साथ छपी थी| वह भी पैकेजवाला नौजवान था, शादीशुदा|
माँ चाय ले आई थी| मनीष लिपट गया माँ से| बोला, “माँ, चलो, अभी गाँव चलते हैं|”
सुभद्रा बुदबुदाई थी, “कभी सुना था-जेवर संपत्ति का शृंगार और विपत्ति का आहार होता है| पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही विपत्ति का आहार बन रही है| ढाई बीघा ही है तो क्या, तिनके का सहारा|”
-इसी संग्रह से
समाज जीवन की ज्वलंत समस्याओं से रू-ब-रू कराती ये कहानियाँ पाठक की अंत:चेतना को झकझोरती हैं| ये व्यक्ति, परिवार और समाज को तोड़ती नहीं, जोड़ती हैं| सर्वे भवन्तु सुखिन: का जीवन-मंत्र लिये, संवेदना और मर्म से भरपूर अत्यंत पठनीय कहानियाँ|
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