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Genre
Print Length
266 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2009
ISBN
817315161X
Weight
315 Gram
धर्म की इस विकृति व भ्रांति के साथ स्वार्थ व अहंकार इतना अधिक जुड़ गए है कि सामान्य व्यक्ति धर्म की वास्तविक अवधारणा को भूलकर इस विभाजित चेतना को ही सत्य मानने लगा है| विभाजित व स्वार्थ प्रधान चेतना से उपजे जो विभिन्न धर्म हैं उनमे से अनेक केवल अपने अहंकार, स्थार्थ व आक्रामकता के काराण ही फल-फूल रहे हैं| धर्म का आवरण लेकर अपनाई गई यह आक्रामकता ही ' सांप्रदायिकता' है| इस आक्रामकता को कहीं राजनीतिक कारणों से अपनाया गया और कहीं आर्थिक कारणों से तो कहीं सामाजिक कारणों से| आज स्थिति इतनी बिगड़ी हुई है कि अपना- अपना तथाकथित धार्मिक दर्शन थोपने के लिए धनबल, छलबल व बाहुबल का खुलकर प्रयोग हो रहा है और वह भी सभ्यता व संस्कृति के नाम पर |
धर्म का लक्ष्य है भेदजनित भ्रांति व अज्ञान का निवारण| लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि यह निवारण भी वैयक्तिक स्तर पर ही अनुभूति के माध्यम से करना होगा | इस दृष्टि से भेद की सत्ता के अस्तित्व को जगत् के स्तर पर अस्वीकार नहीं किया जा सकता| जैसेकि महासागर में लहर के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, वैसे ही विराट् चैतन्य के महासागर में भेद रूपी लहर को स्वीकार करना ही होगा; पर ध्यान रहे कि वास्तविक अस्तित्व लहर का नहीं है वरन् महासागर का है|
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक ने जीवन के सभी पक्षों को लेकर समाज, धर्म, देश आदि अनेक विषयों पर अपने भावों को व्यक्त किया है|
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