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Genre
Print Length
294 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2010
ISBN
8188140813
Weight
455 Gram
मैंने घोषणा की, “मैं पृथ्वी-पुत्री सीता इन दोनों पुत्रों की जननी हूँ| इक्ष्वाकु वंश की ये दोनों संतानें उनके प्रतापी वंश को अर्पित कर मैंने अपना दायित्व पूर्ण किया| असंख्य संतानों की माँ, धरती की अंश अब मैं अपनी माँ के सान्निध्य में जाना चाहती हूँ| चलते-चलते बहुत थक चुकी हूँ, मानो शक्ति क्षीण हो गई है| पुन: शक्ति-प्राप्ति के लिए धरती ही उपयुक्त स्रोत है| मैं कुश एवं लव की जननी अपनी जननी का आलिंगन करना चाहती हूँ, उसके सत में विलीन हो जाना चाहती हूँ|”
श्रीराम अति विनीत स्वर में बोले, “नहीं सीते! आप मुझे इतना बड़ा दंड नहीं दे सकतीं| आपको मैंने निर्वासन का दंड दिया, किंतु आप निरपराध थीं| आपके निर्वासित होने पर यह राजभवन मेरे लिए वन के समान ही था| मैं आपकी सौगंध खाकर कहता हूँ-आपके निर्वासन के उपरांत मेरे राज्य में एक भी नारी अपने दु:ख से दु:खी नहीं हुई; पर अयोध्या और मिथिला की प्रजा आपके लिए ही बिसूरती रही| सीते...सीते...”
मेरे अंतर्धान होने के क्रम में मुझे किसी ने देखा नहीं| पर मैं सब देखती-सुनती रही| चहुँओर अपने ही नाम का जयघोष! दोनों पुत्रों का विलाप, राम का वियोग, दो कुमारों को पाकर अयोध्या का हुलास, जन-सामान्य में राम के लिए सहानुभूति| फिर भावों का इंद्रधनुष बना था, जिन्हें आत्मसात् करने का मेरे पास समय नहीं था, न आवश्यकता थी| मेरा जीवनोद्देश्य ही पूरा हो गया था|
-इसी उपन्यास से
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