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Genre
Print Length
111 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2012
ISBN
8173152233
Weight
230 Gram
जंजीरें फौलाद की होती हैं, दीवारें प्तत्थर की | किंतु पटना जेल में जो दीवारें देखी थीं, उनकी दीवारें भले ही पत्थर- सी लगी हों, थीं ईंट की ही | पत्थर की दीवारें तो सामने हैं - चट्टानों के ढोंकों से बनी ये दीवारें | ऊपर- नीचे, अगल-बगल, जहाँ देखिए पत्थर- ही-पत्थर | पत्थर-काले पत्थर, कठोर पत्थर, भयानक पत्थर, बदसूरत पत्थर | किंतु अच्छा हुआ कि भोर की सुनहली धूप में हजारीबाग सेंट्रल जेल की इन दीवारों का दर्शन किया | इन काली, कठोर, अलंघ्य, गुमसुम दीवारों की विभीषिका को सूर्य की रंगीन किरणों ने कुछ कम कर दिया था | संतरियों की किरचें भी सुनहली हो रही थीं | हाँ अच्छा हुआ, क्योंकि बाद के पंद्रह वर्षों में न जाने कितनी बार इन दीवारों के नीचे खड़ा होना पड़ेगा |
किसीने कहा है, सब औरतें एक- सी | यह सच हो या झूठ, किंतु मैं कह चुका हूँ सब जेल एक-से होते हैं | सबकी दीवारें एक-सी होती हैं, सबके फाटक एक-से दुहरे होते हैं, सबमें एक ही ढंग के बड़े-चौड़े ताले लटकते होते हैं, सबको चाबियों के गुच्छे भी एक-से झनझनाते हैं और सबके वार्डर, जमादार, जेलर, सुपरिंटेंडेंट जैसे एक ही साँचे के ढले होते हैं-मनहूस, मुहर्रमी; जैसे सबने हँसने से कसम खा ली हो |
किंतु हजारीबाग का जेल अपनी कुछ विशेषता भी रखता है | सब जेल बनाए जाते हैं अपराधियों को ध्यान में रखकर, हजारीबाग सेंट्रल जेल की रचना ही हुई थी देशभक्तों पर नजर रखकर |
-इसी पुस्तक से
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