₹600.00
MRPGenre
Print Length
340 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2016
ISBN
817315225X
Weight
575 Gram
मेरे मानस पर अपने जीवनसाथी का ऐसा चित्र उभरता, जो देश की आजादी की लड़ाई लड़ रहे सूरमाओं में सबसे पहली पंक्ति का तेजपुंज हो ।. .स्वदेशी आग्रह का माहौल कुछ ऐसा बना कि प्रत्येक नागरिक विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर देशभक्तों की पंक्ति में आ खड़ा होने लगा । इसी भावना से प्रेरित होकर मैंने प्रतिज्ञा की कि न केवल विदेशी वस्त्र अपितु अन्य कोई विदेशी वस्तु भी प्रयोग में नहीं लाऊँगी । अंग्रेज अधिकारियों के यहाँ जाना-आना रहता था, मैंने निर्णय लिया कि अब उनसे कोई संबंध नहीं रखूँगी । अत: उनके क्लबों, चाय-पार्टियों या भोज- समारोहों में जाना मैं टालने लगी । --- सफेद घोड़े पर एक लड़का सवार था और काले घोड़े पर एक लड़की । प्राणि उद्यान के एक नौकर ने पूछने पर बताया कि वे जिवाजीराव महाराज और उनकी बहन कमलाराजे थे । अर्थात् स्वयं महाराज सिंधिया अपनी बहन के साथ थे । हम लोगों द्वारा देखे गए उस प्रासाद, किले, उद्यान और उस शेर के भी स्वामी । नानीजी के मानस पर वह दृश्य बिजली की तरह कौंध गया । सहसा उनके मुँह से निकला, "हमारी नानी (मैं) की उनके साथ कितनी सुंदर जोड़ी लगेगी!'' इतना सुनते ही मामा और सभी हँस पड़े । किसीके मुँह से निकला, '' कल्पना की उड़ान ऊँची है ।'' --- मुझे लगा, राजनीतिक जीवन में रहकर सिद्धांतों एवं मूल्यों के संवर्द्धन के लिए जूझते रहना ही अपना कर्तव्य है । अत: मेरे मन में यह बोध जागा कि सम विचारवाले लोगों के साथ कार्य करना अधिक परिणामकारी होगा । ऐसे लोगों का दल, जिन्हें भ्रष्टाचार की लत नहीं लगी थी, मुझे अपना प्रतीत होने लगा ।' ' 'वैचारिक दृष्टि से मुझे जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी की रीति-नीति अच्छी लगती थी, अत: दोनों ही दल मुझे करीबी लगते थे । किंतु मैं यह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि किस दल की सदस्य बनूँ । अंततः मैंने दोनों ही दलों के टिकट पर चुनाव लड़ने का निश्चय कर लिया । मध्य प्रदेश विधानसभा के करेरा निर्वाचन क्षेत्र से मैं जनसंघ की प्रत्याशी बन गई । -इसी पुस्तक से तिहाड़ कारागह नहीं है, यह धरती का नरक- कुंड है । और इस नरक-कुंड में वे लोग धकेल दिए गए थे, जिनके तपोबल से इंदिराजी का सिंहासन डिग रहा था ।. तिहाड़ जेल में स्थान-स्थान पर गंदगी का ढेर जमा रहता । दुर्गंधयुक्त वायु में घुटन महसूस होती । भोजन के समय थाली पर से भिनभिनाती मक्खियों को लगातार दूसरे हाथ से उड़ाना पड़ता । कानों में कीट-पतंगों की आवाजें गूँजती रहतीं । अँधेरे में जुगनू का प्रकाश और कानों में झींगुर की झनकार । जीना दूभर था । इन सबके बावजूद हम चैन से थे । किंतु खुली हवा में साँस लेनेवाली इंदिराजी क्या चैन से थीं! उन्हें तो दिन में भी तारे नजर आ रहे थे । --- अयोध्या ईंट और फत्थर की बनी नगरी नहीं है । यह भारत की आत्मा और राष्ट्र की अस्मिता का प्रतीक है । इसीलिए जब रथयात्रा निकली तो हिंदू और मुसलमान दोनों इसमें समान रूप से शरीक हुए । राम और रहीम संग-संग चलते रहे । जनसभाओं में भी मुसलमान शिरकत करते रहे । न राग, न द्वेष; एक प्राण दो देह जैसी स्थिति थी । इस राष्ट्र-मिलन से उन मुट्ठी- भर लोगों में खलबली मच गई, जो राजनीति की अँगीठी पर स्वार्थ की रोटियाँ सेंका करते थे । बाबरी ढाँचा टूटने का उनका भय और विरोध केवल इसी मात्र के लिए था । --- एक छोटे परिवार के दायरे से निकलकर विराट् में समाहित होने का सुख, वसुधैव कुटुंबकम् के आदर्श को जीने का प्रतीक था वह आयोजन । मुझसे छोटे से बने सुंदर, किंतु अति विशिष्ट मंदिर की सीढ़ियों पर पैर का अँगूठा लगाने के लिए कहा गया । पर करती भी क्या! मजबूरी थी । उस मंदिर में एक ओर मेरे पति स्वर्गीय महाराज की मूर्ति रखी थी तो दूसरी ओर गुरुजी की । बीच में थे मेरे इष्टदेव श्रीकृष्ण । मैंने पाँव का अँगूठा नहीं, अपना माथा उस मंदिर से लगा दिया । इस प्रकार परदादी बनने का सुख मैंने अपने संपूर्ण संघ परिवार के साथ जीया । ईश्वर से संपूर्ण भारतीय समाज के शुभ की कामना करती हूँ । -इसी पुस्तक से
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