₹225.00
MRPGenre
Print Length
132 pages
Language
Hindi
Publisher
Rajpal and sons
Publication date
1 January 2014
ISBN
9788170287599
Weight
170 Gram
1981 में जनिन, स्विटूज़रलैंड तथा एम्स्टर्डम में आयोजित इन वार्ताओं में कृष्पामूतिं मनुष्य मन की सरिकास्वद्धता को कभयूटर की प्रोग्रामिंग की मानिंद बताते हैं । परिवार, सामाजिक परिवेश तथा शिक्षा के परिणति के तीर पर मस्तिष्क की यह प्रोग्राम्मिऱ ही व्यक्ति का तादाल्य किसी धर्म-विशेष से करवाती है, या उसे नास्तिक बनाती है, इसी की वजह से व्यक्ति राजनीतिक पक्षसमर्थन के विभाजनों में से किसी एक को अपनाता है । हर व्यक्ति अपने विशिष्ट नियोजन, प्रौग्रामकै मुताबिक सोचता है, हर कोई अपने खास तरह के विचार के जाल में फंसा है, हर कोई सोच के फंदे में है । सोचने-विचारने से अपनी समस्याएं हल हो जाएगी ऐसा मनुष्य का विश्वास रहा हैं परंतु वास्तविकता यह है कि विचार पहले तो स्वयं समस्याएं पैदा करता हे, और फिर अपनी ही पैदा की गई समस्याओँ को हल करने में उलझ जाता है । एक बात और, विचार करना एक भौतिक प्रक्रिया हे, यह मस्तिष्क का कार्यरत होना है, यह अपने-आप में प्रदान नहीँ है । उस विभाज़कता पर, उस विखंडन पर गौर कीजिए जब विचार दावा करता है, 'मैं हिंदू हूँ या 'मैं ईसाई हूँ या फिर 'मैं समाजवादी हूँ- प्रत्येक हिंसात्मक ढंग से एक-दूसरे के विरुद्ध होता है । कृष्णामूर्ति स्पष्ट करते है कि स्वतंत्रता का, मुक्ति का तात्पर्य है व्यक्ति के मस्तिष्क पर आरोपित इस 'नियोजन' से, इस 'प्रोग्राम' से मुक्त होना । इसके मायने है अपनी सोच ' का, विचार करने की प्रक्रिया का विशुद्ध अवलोकन; इसके मायने है निर्विकार अवलोकन-सोच की दखलंदाजी के बिना देखना । "अकवलोकन अपने जाए से ही एक कर्म यहीं वह प्रज्ञा है जो समस्त भ्रांति तथा भय से मुक्त कर देती है ।
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