₹400.00
MRPGenre
Print Length
480 pages
Language
Hindi
Publisher
Prabhat Prakashan
Publication date
1 January 2015
ISBN
8173153477
Weight
600 Gram
भारतीय अंक-प्रतीक-कोश ' (गणित ज्ञान : संख्यात शास्त्र) अपने विषय का न केवल हिंदी में, वरन् समस्त अठारह भारतीय भाषाओं में पहला कोश है । पाँच सौ पृष्ठोंवाला यह कोश प्रारूप और ज्ञान के संख्यात अनुशासन की प्रथम प्रस्तुति है । अपने में यह प्रथम प्राथमिकता और महत्त्व का विषय एवं ग्रंथ है । समस्त ज्ञान को अंक और संख्या में समझने की एक सामाजिक परंपरा रही है । ज्ञान कैसा भी और कितना भी विशाल क्यों न हो, समाज जब उसे संख्या के धरातल पर खड़ा कर देखता है, तब उसे समझने में और स्मरण रखने में सुविधा होती है । जैसे-सूर्य एक, द्वंद्व दो, काल तीन, वेद चार, तत्त्व पाँच, वेदांग छह, माताएँ सात, दिशाएँ आठ, अंक-मूल नौ, महाविद्याएँ दस, रुद्र ग्यारह, ज्योतिर्लिंग बारह, महापापोद्भव-रोग तेरह, चुंबन-प्रकार चौदह, अनर्थ पंद्रह, चंद्रकलाएँ सोलह, ओषधि-प्रकार सत्रह, पुराण अठारह, पूर्वरंग-अंग उन्नीस, उपरूपक बीस, नरक इक्कीस, आहुति-क्रम बाईस, अर्थदोष तेईस, गुण चौबीस, तत्त्व पचीस, योगविघ्न छब्बीस, नक्षत्र सताईस, राधा-नाम अठाईस, कल्प तीस, तर्पणीय देवता इकतीस, अर्थहरण बत्तीस, संचारी भाव तैंतीस, दनुपुत्र चौंतीस, रागिणी छत्तीस, भक्त अड़तीस, संस्कार चालीस, मंत्रदोष पैंतालीस, पवन उनचास, ओंकार-कला पचास, कलाएँ चौंसठ, धृतराष्ट्र-पुत्र सौ, चरणाक्षर एक सौ आठ इत्यादि । इस प्रकार की 2169 प्रविष्टियाँ इस कोश में संगृहीत हैं । ' भारतीय अंक-प्रतीक-कोश ' के माध्यम से प्राय: समस्त भारतीय ज्ञान-परंपरा को अंक और संख्या में परंपरा-व्यवस्थित रूप में उपस्थित किया गया है । कोश का कोई भी पृष्ठ उलटिए, आपकी जिज्ञासा कौतूहल में और कौतूहल ज्ञानवर्धक आनंद में स्वत: रूपांतरित होता चला जाएगा । इस कोश की उपयोगिता सामान्य से विशिष्ट जन तक है । जैसे पूजा के समय पंचामृत और पंचगव्य में क्या-क्या पदार्थ हैं, इस तथ्य से आरंभ कर न्याय के 334 प्रकार तक का उल्लेख यहाँ मिलेगा । पांडुलिपि- काल में ही इसका पारायण करनेवाले पाठकों के अभिमत में यह कोश प्रत्येक प्रश्न-पिपासा के लिए उत्तर- मानसरोवर-सलिल सिद्ध होगा, जो अपने में अनुत्तर है । यह कोश प्रत्येक परिवार से पुस्तकालय तक का अलंकरण सिद्ध होगा । इस ग्रंथ को हम भारतीय जीवनधारा और संस्कृति की शोभा, शक्ति एवं संपदा के रूप में लोकार्पित करते हुए सुखद संतोष का अनुभव करते हैं ।
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